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1.बचपन की उमंगें

  • Writer: Jashu Kumar
    Jashu Kumar
  • Sep 2, 2019
  • 2 min read

बचपन की उमंगें

उनदिनों जब भी सड़कों से डमरू की आवाज़ आती, हम दरवाजे पर दौड़कर पहुँचते। पहले रुकवाना पड़ता था। फिर आँगन भाग कर आते और केस/बाल ढूँढ़ते। बाल लेकर, हम वहाँ पहुँचते। उसके बदले, कागज़ पर थोड़ा सनपापड़ी मिलता। हम जिद करके थोड़ा और लेते। बाल कितना भी देता लेकिन हर दिन बराबर या उससे कम ही मिलता। हमारे लिये काफी उम्र तक वो सनपापड़ी ही रहा। बहुत बाद में आकर, उसका सही नाम और उच्चारण समझे। वही सनपापड़ी हमारे लिये मिठाई थी, वो भी सिर्फ बालों के बदले मिलता। हम कभी नहीं समझे कि आखिर इन बालों का होता क्या होगा, हमने बस सनपापड़ी लेना समझा। बाल, प्लास्टिक, शीशी जैसी इत्यादि चीजों से भी वो मिलता। और पैसों से क्या नहीं मिलती है लेकिन पैसे कोई नहीं देता!

उसी साईकल के हैंडल पर एक डंडा होता। उसमें चिन्नी-कटोरा साँप की तरह लपेटा होता था। वो भी उन्हीं मूल्यों पर मिलता। उस चिन्नी कटोरा के लिये बहुत सी अफवाहें थीं। कुछ कहते कि प्लास्टिक का बनता है तो, कोई कुछ भी कह देता। वो इतना नमरता था कि थोड़ा ज्यादा देने की जिद भी करते तो उसी को और लंबा कर थमा दिया जाता। कभी-कभी लगता था कि दुनिया में सबसे ज्यादा यही नमरता होगा। जबतक वो सनपापड़ी या चिन्नी कटोरा निकालते, हम उसका डमरू बजाते। घर से लाख मनाही थी कि खराब चीजें हैं, मत खाओ लेकिन मानता कौन है!

उसी तरह आइसक्रीम बिकता। लेकिन वो आइसक्रीम कम, बर्फ ज्यादा था। ज्यादातर बच्चे उसे बरफ कहते। लेकिन वो महँगे बजट का था। उसमें बाल इत्यादि नहीं लिया जाता। वो धान-गेहूँ लेते या रुपये। एक रुपये में लाल वाला, जो अब ऑरेंज हो गया है। दो रुपये में दूध वाला। उस दूध वाले में नारियल इत्यादि चिपका होता था। वो हमारे समय का सबसे महँगा आइसक्रीम हुआ करता था। सबसे बढ़कर। चोकोबार, स्ट्रॉबेरी...इत्यादि जैसे फ्लेवर भी उसके सामने फीके हैं अबतक। कितना भी महँगा आइसक्रीम खा लूँ, लेकिन डमरू वाले को रुकवाकर, बीच दुपहरिया में खाने जैसी बात नहीं। गाँव में भी अब स्नोबॉल, इत्यादि टाइप के घूमने लगे हैं। इसलिए अब वो क्रेज भी नहीं है। कब आता है और कब जाता है, पता तक नहीं चलता।

वो जो

थीं, वही असली जिंदगी थी। सच्चाई से दूर, प्रेम से भरपूर। उन डमरुओं वालों को सलाम-प्रणाम रहेगा, हमारा बचपन खूबसूरत बनाने के लिये।

 
 
 

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